Heal से Health शब्द बना। Heal माने व्याधि से मुक्त करना, भला चंगा
करना. इसकी व्यापकता शारीरीक या मानसिक पुष्टता आरोग्य एवं स्वास्थ्य
होता।आपको या हमें स्वास्थ्य गंभीरता खोजने की आवश्यकता नहीं। सहजता से
आरोग्य स्वतः हासिल होता जाता है। हमारा स्वास्थ्य हमारे हाथ। प्रायः
स्वास्थ्य का अर्थ महज शरीर से लगा लिया जाता है ऐसा भी नहीं काफी कुछ मन
से जुड़ा रहता। मन सहज हों स्वास्थ्य भी सहज रहेगा ही। इसीलिए ही कहा गया
body, mind and soul का सहज रिस्ता
अर्थात शरीर, मन,बुद्धि व आत्मा के प्रगाढ़ता के रिस्ते को व्यापकता हासिल यहाँ।
हमारे शरीर की भी अलग अलग परतें जिसे कोश का नाम दिया गया। पञ्च कोश भी कहते हैं।
1. स्थूल शरीर (physical body)यानी अन्नमय कोश
2. प्राण शरीर (Etheric body) प्राणमय कोश,
3. मन शरीर (Mental body) मनोमय कोश,
4. ज्ञान शरीर (Astral body) विज्ञानमय कोश,
5. आनंद शरीर (super casual body) अर्थात आनन्दमय कोश।
इसीलिए ही भारतीय परंपरा में योगक्षेम कौशलम् अर्थात योग को महत्व दिया गया, और कोशिकाओं को शरीर की शुक्ष्मतम इकाई माना गया, वहीं प्राण को आरोग्य की शुक्ष्मतम इकाई स्वीकार किया गया। यहां अर्थात हमारी परंपरा में चेतना व आत्मा में बुनियादी फर्क नहीं हैं, जब कार्मिक पर्त ज्यादा और नकारात्मक होती है तो चेतना आत्मा से अलग होती है। आत्मा परमात्मा से कट जाती है। कुण्डलिनी चक्र, तत्व ग्रंथियां, DNA और सूक्ष्मबुद्धि शरीर (subtle body) सभी सुप्तावस्था में आ जाते हैं। चेतना जड़ चक्र के नीचे निम्न आयामों में चली जाती है।अर्थात पापात्मा स्वरूप में।
कर्म जब प्रकाशित एवं सकारात्मक होते हैं तो चेतना जड़ चक्र के ऊपर आती है। पशुत्व से मुक्ति मिलती है पवित्र व अलौकिक चक्र के ऊपर (mental body) आपके नियंत्रण में आना शुरू हो जाती है। solar pieces चक्र के ऊपर हो तो धारणा शक्ति प्रबल व ह्रदय चक्र के ऊपर आ जाए तो healing power + bioetheric + serpent power जागृत हो जाती है।यदि crown चक्र पर पहुंच जाये तो यात्रायें समाप्त मानी जाती हैं। अर्थात शिवत्व प्राप्ति।उस स्तर पर चेतना और आत्मा में कोई फर्क नहीं है। पञ्च शरीर का भी महत्व नहीं रह जाता।
क्षमा! बातें आनंदमय कोश से पूर्व की होगी। क्योंकि उस स्तर में पहुंचने के लिए यहां रहना भी अवश्यंभावी हो जाता है। शिवत्व प्राप्ति के लिए धर्म, अर्थ एवं काम में विचरण अनिवार्य। जीवन के आधार स्तंभ अन्तर्गत अर्थ सबका मूल। उस उपार्जन हेतु स्वस्थ्य तन मन अनिवार्य।
स्वस्थ शरीर के लिए यह जरुरी कि हमारी दिनचर्या कैसी हो, ऋतुचर्या भी। हम अपने शरीर, मन,बुद्धि, परिवार एवं देश के चिकित्सक या डॉक्टर स्वयं ही हैं।अन्य डॉक्टर खोलने की आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि हकीकत में देखा जाए तो आज का युग स्वास्थ्य षड्यन्त्रकारी युग का जमाना है। क्योंकि WHO की रिपोर्ट के अनुसार बाजार में बिक रही 85 फीसदी दवाईयों पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए लेकिन ऐसी दवाओं की संख्या बढती जा रही है। ऐसे में इन पर भरोसा करने की बजाय यह अधिक अनिवार्य हो जाता है कि आप अपनी परंपराओं में निहित स्वास्थ्य विज्ञान पर ध्यान दें और अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब वैज्ञानिक आविष्कार स्वास्थ्य के लिए कम और दवाएं बिकवाने के लिए अधिक होने लगे व भ्रष्टाचार के चलते इन्हें मेडिकल जगत, मिडिया, प्रशासन या प्रसिद्ध लोलुप स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा प्रचारित किया जाने लगे, तब Brain washing से बचने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि आप और हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब दवा कंपनियां कमीशन, कीमती उपहार, मुफ्त विदेश यात्रा, और बड़े बड़े समारोहों में ख्याति से लुभाकर चिकित्सकों को एजेंट बनाने लगे और डॉक्टर ‘सब खाओ लेकिन दवा जरूर खाओ’ की भाषा बोलने लगे, ऐसे में डॉक्टरों का चोला ओढे एजेण्टों से बचने के लिए जरुरी हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जिस वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का प्रत्येक क्रांतिकारी आविष्कार कुछ ही वर्षों में ही नये आविष्कार के साथ अधूरा, अवैज्ञानिक व हानिकारक घोषित कर दिया जाता है।पांच सितारा अस्पतालों, भव्य ऑपरेशन थियेटरों, गर्मी में भी कोट पहनने वाले बड़े बड़े डिग्रीधारी डॉक्टरों से प्रभावित होने की बजाए अधिक श्रेष्ठ होगा कि हजारों वर्षों से प्रमाणित व परंपराओं में बसी चिकित्सा को समझकर आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब अपनी खंडित दृष्टि के कारण डॉक्टर दवा देकर एक नये रोग को शरीर में घुसा दे या शरीर में गंभीर उत्पात पैदा कर दें और और उनकी पद्धतियों की अवैज्ञानिकता को छिपाने के लिए side effect, reaction जैसे शब्द जाल रचें, तब अपने आप को बचाने के लिए आवश्यक है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब डॉक्टर pathologist से सांठगांठ कर अनावश्यक आपको blood test, x-ray, sonography, MRI, ECG, आदि के चक्कर में फंसा आपसे पैसा ऐंठने लगे, तब मानसिक तनाव से बचने समय व धन की बरबादी को रोकने के लिए जरूरी हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जिस व्यवस्था में लाखों रुपए खर्च करने पर डॉक्टर बना जाता हो और विशेषज्ञ
के रूप में स्थापित होते होते आयु के आधे वर्ष निकल जाते हों उस व्यवस्था
में डॉक्टरों को नैतिकता का पाठ यथा मरीज को अपना शिकार नहीं, भगवान समझें
पढाने के बजाय यह अधिक आवश्यक हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जिस देश में योरोपीय- अमेरिकी समाज की आवश्यकताओं के अनुसार की गई खोजों को पढकर डॉक्टर बनते हों और जिन्हें अपने देश के हजारों वर्षों से समृद्ध खान पान और रहन सहन में छिपी वैज्ञानिकता का ज्ञान न हों, उस देश में स्वास्थ्य के संबंध में डॉक्टरों पर विश्वास करने के बजाए यह अधिक जरूरी हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।जिस दुनिया में कभी डेंगू, कभी एड्स, कभी Hepatitis, कभी चिकनगुनिया, कभी Swine flu के नाम पर भय फैला कर लूटा जाता हो।ऐसे में षड्यंत्रों के चक्रव्यूह से बचने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब कोई चिकित्सा मानव प्रेम या सेवा के आधार पर न कर धंधे के लिए करे तब भी ठीक है क्योंकि धंधे में नैतिकता होती है, मगर कोई नैतिकता छोड़ उसे लूट, ठगी, शिकार इत्यादि का स्रोत बना ले ऐसे में जरूरी है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
डॉक्टर बीमार पड़ने के बाद बीमारी बताते हैं, जबकि आप बीमार होने से पूर्व ही आनेवाली बीमारी को पहचान जायेंगे।
डॉक्टर बीमार पड़ने के बाद भी दुनिया भर की जांच के बिना बीमारी पकड़ नहीं सकते, जबकि आप ऐसी जांच के बिना ही तकनीकी सीख जायेंगे कि आपको 1 रुपया भी खर्च नहीं करना पड़ेगा और ये तकनीकें इतनी सहज व सरल है कि इनके लिए आपको किसी के सहयोग की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी और समय भी नहीं लगेगा।
डॉक्टर बीमारी के महज ऊपरी हिस्से को ही पकड़ नहीं पाते जबकि आप उसके मूल को भी पकड़ लेंगे। डॉक्टर बीमारी के संपूर्ण विकार को कभी बाहर निकाल कर मिटा नहीं पाते बल्कि अंदर ही दबाकर रखते हैं। आप बीमारी को समूल मिटाकर बाहर कर सकेंगे।
चैतन्य विज्ञान के अनुसार हमारे शरीर सहित सम्पूर्ण संसार पंचतत्वों से बना है –
1. वायु
2. अग्नि
3. पृथ्वी
4. जल
5. आकाश
आयुर्वेद के ऋषियों ने सर्व जन की सुविधानुसार इन्हें तीन भागों में विभक्त किया –
1. वात (आकाश+वायु)
2. पित्त (अग्नि+जल)
3. कफ(जल+पृथ्वी)
कफ से शरीर बनता है, पित्त से उसमें चयापचय ( Metabolism) की क्रिया होती है और वात से सभी गतिविधियां होती है।
1. गति
2. सूखापन
3. ठंड
4. घुसपैठ
5. परिवर्तन
● शरीर में जितनी भी गतियाँ हैं, सभी वात के कारण है। सांस का चलना, ह्रदय का धड़कना, हाथ पांव की हलचल, भोजन का आगे सरकना, बोलना, पलकों का झपकना सभी वात के कारण ही संभव है
● लेकिन जिस भांति वायु की अनियंत्रित गति विनाशकारी आंधी, तूफान या चक्रवात बन जाती है, कहीं अकाल तो कहीं प्रलयंकारी बाढ आ जाती है, उसी प्रकार से वात की अनियंत्रित गति बहुत से रोग पैदा कर देती है।
● गति संबंधी सभी रोग वात के प्रकोप के कारण बनते हैं – जोड़ों में दर्द रहना, सांस फूलना, पैरों में दर्द रहना, चक्कर आना, लकवा, parkinsan इत्यादि रोग वात के कारण ही हुआ करते हैं।
● तेज हवा में रहना, तेज पंखे, खुले वाहन की तेज हवा क्यों खतरनाक व घातक है ? आप समझ सकते हैं।
● वात का मुख्य स्थान है बड़ी आंत, भोजन जब बड़ी आंत में पहुंचता है तब तरल रहता है, बड़ी आंत उसका जलीय अंश सोख लेती है। परन्तु जब वात बढ जाता है तब जलीय अंश अधिक सोख लिया जाता है, परिणामतः कब्ज हो जाती है।
● बढा हुआ वात त्वचा को रूखा बना देता है जिससे त्वचा फटने लग जाती है।
● बढा हुआ वात जब संधि स्थान पर पहुँचता है तब संधियों के बीच की तरलता को सूखा देता है जिससे संधियों में कड़ापन आ जाया करता है।
● बढा हुआ वात जब धमनियों में पहुंचने से धमनियों की दीवारों में कड़ापन आने लगता है, जिससे उच्च रक्तचाप की शिकायत रहने लगती है। ह्रदय की सूखी धमनियों पर जब रक्त का कॉलेस्ट्रॉल चिपकने लगता है, तब ह्रदय रोग हो जाता है।
● वात बढने के कारण व्यक्ति सूखकर पतला हो जाता है।
● हवा में हल्की ठंडक हो तो कार्य करने में आनंद अनुभव होता है, लेकिन अधिक ठंडक से सिकुड़न बढऩे लगती है।
● मस्तिष्क ठंडा हो तो व्यक्ति की कार्य क्षमता बढती है लेकिन
हाथ पैरों में ठंडक हो तो यह रोग का कारण बन जाया करता है।
1. जलन
2. रंग ( पीला व लाल)
3. पिघलना
4. फैलना
5. दुर्गंध
● चूल्हे की नियंत्रित अग्नि ही हमारे भोजन को पकाती है। परन्तु यही
अग्नि जब अनियंत्रित होकर फैल जाती है तो न महज भोजन को ही बल्कि पूरे घर
को जलाकर खाक में बदल देती है।
● शरीर में पित्त का मुख्य स्थान पक्वाशय यानी आमाशय और छोटी आँत है। शरीर का पित्त अनियंत्रित होने पर यकृत, जठर, गुर्दे, ह्रदय के वाल्व आदि को जलाने लगता है।
● जब भी शरीर में आंख, हथेली, पैर के तलवों में या मूत्र त्याग के समय गर्मी या जलन का अनुभव हो,तो समझ जाना चाहिए कि शरीर में पित्त बढ़ रहा है। उसी दिन पित्त को शांत कर दिया जाय तो शरीर में बड़े रोगों के प्रवेश से बचे रहेंगे।
● भय के कारण भी पित्त बढ़ जाता है, जिससे चेहरा पीला पड़ जाता है।
● अग्नि में लाली भी होती है। पित्त बढने से ज्वर आता है ज्वर में चेहरा लाल हो जाता है।
● क्रोध भी पित्त को कुपित करता है।
● मध्याह्न में गर्म चीजें खाने से पित्त कुपित होता है।
1. चिपचिपाहट
2. चिकनाई
3. ठंड
4. भारीपन
5. जड़ता
अब आईये जानते हैं त्रिदोष विकृति के लक्षण और उन्हें विकृत न होने देने के उपाय, अर्थात क्या करें क्या न करें –
● भूख भी कभी कम तो कभी अधिक लगती है। भूख लगने के समय में भी अनियमितता आ जाती है।
● दिनचर्या भी नियमित नहीं रह पाती
● स्त्रियों में मासिक धर्म भी नियमित नहीं रह पाता।
● व्यक्ति कभी खुश तो कभी दुखी, कभी मजाकिया तो कभी गंभीर, कभी आध्यात्मिक तो कभी सांसारिक, कभी त्यागी तो कभी भोगी।
● शरीर अधिक पतला तो किसी का अधिक मोटा।
● यथार्थ से बिल्कुल अलग काल्पनिक लोक में रहना।
● व्यक्ति एक ही स्थिति में अधिक देर तक नहीं रह सकता
● मन शांत नहीं रहता।
● बेचैनी रहना, अधिक जम्हाई आना, बार बार हिचकी आना।
● एक काम छोड़कर बिना पूरे किए ही दूसरा करने लगना।
● त्वचा सूखी एवं सर्दी के मौसम में फटने लगती।
● मुंह सूखा सूखा लगता, प्यास मिटती नहीं, स्वाद बिगड़ा हुआ रहता।
● आंतों में रूखापन रहने से मल आगे नहीं बढता, जिससे कब्ज रहती है।
● संधि के जोड़ों में चिकनाई सूखने से लचीलेपन में कमी आ जाती है परिणामतः दर्द रहने लगता है।
● कान साफ करने पर सूखा मैल निकलना।
● भाषा में मधुरता का अभाव एवं जल्दी चिढ जाना।
● अस्थिरता के कारण चित एकाग्र नहीं होने की वजह से भुलक्कड़ हो जाता।
● अधिकतर दर्द का कारण वात विकृति होता है। एकदम उठने वाले दर्द वात के दर्द होते हैं।
● गैस यथा डकार तथा पाद का अधिक आना भी इसी का लक्षण।
● पूरे शरीर में सूखी खुजली का चलना।
● अचानक होने वाले दर्द, ऐंठन यानी बाइण्टा, मिरगी, व्यवहार परिवर्तन, भाव परिवर्तन जैसे- आकस्मिक भय,आकस्मिक क्रोध आदि।
● जोड़ों में हल्का दर्द एवं अकड़न का रहना।
● भय,क्रोध, सर्दी, बुखार, क्षमता से अधिक व्यायाम, परिश्रम वजन उठाने आदि से कंपकपी का आना।
● उत्साहहीन एवं थका महसूस करना।
वर्षा, गर्मी एवं शीत ऋतु में खानपान का ख्याल रखना। (इसका वर्णन आगे पढने पर मिल जायेगा) गलत खानपान, दौड़ भाग के जीवन, ए.सी.में रहने, फ्रिज के बासी आहार खाने, बेसिर-पैर की कल्पना से वात विकृत होता है।
● सवेरे सूर्योदय से ढाई घंटे के भीतर भर पेट भोजन कर लेना चाहिए। दोपहर का भोजन उससे आधा एवं रात्रि में दोपहर का आधा कर देना चाहिए
● पानी नियमित पीते रहना चाहिए। भोजन करते ही नहीं। वाग्भट्टजी का फार्मूला अपनाना चाहिए।
● गति को सदैव नियंत्रित रखें। यथा पंखे की सीधी हवा से बचें, पंखे के नीचे सोने की मजबूरी में पंखा धीमा रखें, कानों में एक दो बूंद गुनगुना तेल डालें, नाक में घी या तेल लगायें।
● शास्त्रीय संगीत से वात नियंत्रित होता है।
● हल्के व्यायाम करें।
● दिनचर्या योजनाबद्ध तरीक़े से चलायें।
● पानी धीमे धीमे एवं घूंट घूंट कर पीयें।
● सुखासन, पद्मासन, वज्रासन, शवासन या कोई भी आसन जिसमें आप प्रतिदिन आधा घंटे अनवरत रह सकें, अवश्य करें।
● ठंड से वात विकृत होता है।इस हेतु कुछ गर्म प्रयोग करें। यथा भोजन के बाद गर्म पानी पीना।
● रात्रि को तांबे के बर्तन में रखा जल प्रातःकाल पीयें। लेकिन पित्त विकृत हो तो यह प्रयोग न करें। और तांबे के बर्तन में पानी गरम न करें। प्रतिदिन तांबे के बर्तन को साफ कर ताजा जल भरना चाहिए।
● गर्म पानी ज्यादा गर्म है तो उसे ठंडा करने के लिए उसमें ठंडा पानी न मिलाएं। नुकसान करेगा। बड़े बर्तन में डालकर ठंडा करें।
● सर्दी की ऋतु में गर्म आहार यथा बाजरा, उड़द, सरसों का साग,मेथी, दानामेथी, अजवायन, गर्म मसाले, तिल-सरसों का तेल, तली चीजें, सूखे मेवे इत्यादि का विशेष सेवन करना चाहिए।वात रोगियों को वातनाशक तेलों से मालिश करना चाहिए। शीत ऋतु में व्यायाम करें।
● ग्रीष्म ऋतु में नारियल तेल से मालिश करना चाहिए।
● वात प्रधान व्यक्ति बिना तेल मालिश के थकानेवाले व्यायाम न करें।
● कसी हुई कमर होने पर हवा शरीर में घुसपैठ नहीं कर पाती। धोती से हमारी कमर हमेशा कसी हुई रहती है।
● कान से हवा शरीर में घुसती है, इसलिए ढककर रखना चाहिए। महिलाओं के सिर पर ओढनी या चुन्नी रखना व पुरुषों के पगड़ी पहनने का यही विज्ञान एवं राज है।
● खाली पेट में हवा घुस जाती है। अतः व्रत उपवास के दिवस गर्म पानी पीते रहना चाहिए। चाय पीने से वात भले ही नियंत्रित हो पित्त विकृत होता है। इसलिए उपवास दिन चाय नहीं पीना चाहिए।
● बैठकर पेशाब करने से हवा निचले अंगों में घुसपैठ नहीं कर पाती। बल्कि बैठकर पेशाब करने से अपानवायु भी निकल जाती है। वह फायदे कारक है।
● माघ व फागुन में, वर्षा के तेज झोकों से, लू के दिनों में शरीर में तेजी से वात विकार होने की संभावनाएं रहती हैं। इन हवाओं का बचाव करें।
● परिवर्तन की उपेक्षा न करें। यथा जागने, मल-मूत्र त्यागने, स्नान भोजन के बाद तुरंत पानी नहीं पीना चाहिए। काम छोटे छोटे मगर परिणाम गंभीर होते हैं।
● आधी रात को प्यास के कारण नींद खुले तो तुरंत पानी पी सकते हैं क्योंकि तुरंत वापस सोना ही है, इसलिए यहां परिवर्तन नहीं है। इसी भांति धूप में रहते हुए पानी पीने से कोई नुकसान नहीं लेकिन धूप से छाया में आने के तुरंत बाद जल पीने से नुकसान होता है। भोजन बनाते समय पानी पीना ठीक, मगर रसोई से निकलने के तुरंत बाद पानी पीना हानिकारक।
● चोट भी एक प्रकार का परिवर्तन है। चोट के बाद गर्म पानी (पेय) अमृत है और ठंडा जल विष।
● फलों का रस अमृत होते हुए भी रकतदान के बाद क्यों नहीं पीना चाहिए चाय विष समान होते हुए भी रक्तदान के बाद क्यों पीना चाहिए? आप समझ सकते हैं।
● मासिक धर्म भी एक प्रकार का परिवार है इस समय ठंडा आहार वर्जित है गर्म आहार लेने की सलाह दी जाती है, विश्राम करने की सलाह दी जाती है। सेनेटरी नेपकिन की मार्केटिंग फलस्वरूप इसके प्रचार का शिकार होने के कारण ही आज गर्भाशय के रोग तेज गति से बढ रहे हैं।
● ध्यान रखें जितना बड़ा परिवर्तन उतना ही बड़ा उपाय।
अर्थात शरीर, मन,बुद्धि व आत्मा के प्रगाढ़ता के रिस्ते को व्यापकता हासिल यहाँ।
हमारे शरीर की भी अलग अलग परतें जिसे कोश का नाम दिया गया। पञ्च कोश भी कहते हैं।
1. स्थूल शरीर (physical body)यानी अन्नमय कोश
2. प्राण शरीर (Etheric body) प्राणमय कोश,
3. मन शरीर (Mental body) मनोमय कोश,
4. ज्ञान शरीर (Astral body) विज्ञानमय कोश,
5. आनंद शरीर (super casual body) अर्थात आनन्दमय कोश।
इसीलिए ही भारतीय परंपरा में योगक्षेम कौशलम् अर्थात योग को महत्व दिया गया, और कोशिकाओं को शरीर की शुक्ष्मतम इकाई माना गया, वहीं प्राण को आरोग्य की शुक्ष्मतम इकाई स्वीकार किया गया। यहां अर्थात हमारी परंपरा में चेतना व आत्मा में बुनियादी फर्क नहीं हैं, जब कार्मिक पर्त ज्यादा और नकारात्मक होती है तो चेतना आत्मा से अलग होती है। आत्मा परमात्मा से कट जाती है। कुण्डलिनी चक्र, तत्व ग्रंथियां, DNA और सूक्ष्मबुद्धि शरीर (subtle body) सभी सुप्तावस्था में आ जाते हैं। चेतना जड़ चक्र के नीचे निम्न आयामों में चली जाती है।अर्थात पापात्मा स्वरूप में।
कर्म जब प्रकाशित एवं सकारात्मक होते हैं तो चेतना जड़ चक्र के ऊपर आती है। पशुत्व से मुक्ति मिलती है पवित्र व अलौकिक चक्र के ऊपर (mental body) आपके नियंत्रण में आना शुरू हो जाती है। solar pieces चक्र के ऊपर हो तो धारणा शक्ति प्रबल व ह्रदय चक्र के ऊपर आ जाए तो healing power + bioetheric + serpent power जागृत हो जाती है।यदि crown चक्र पर पहुंच जाये तो यात्रायें समाप्त मानी जाती हैं। अर्थात शिवत्व प्राप्ति।उस स्तर पर चेतना और आत्मा में कोई फर्क नहीं है। पञ्च शरीर का भी महत्व नहीं रह जाता।
क्षमा! बातें आनंदमय कोश से पूर्व की होगी। क्योंकि उस स्तर में पहुंचने के लिए यहां रहना भी अवश्यंभावी हो जाता है। शिवत्व प्राप्ति के लिए धर्म, अर्थ एवं काम में विचरण अनिवार्य। जीवन के आधार स्तंभ अन्तर्गत अर्थ सबका मूल। उस उपार्जन हेतु स्वस्थ्य तन मन अनिवार्य।
स्वस्थ शरीर के लिए यह जरुरी कि हमारी दिनचर्या कैसी हो, ऋतुचर्या भी। हम अपने शरीर, मन,बुद्धि, परिवार एवं देश के चिकित्सक या डॉक्टर स्वयं ही हैं।अन्य डॉक्टर खोलने की आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि हकीकत में देखा जाए तो आज का युग स्वास्थ्य षड्यन्त्रकारी युग का जमाना है। क्योंकि WHO की रिपोर्ट के अनुसार बाजार में बिक रही 85 फीसदी दवाईयों पर तुरंत प्रतिबंध लगना चाहिए लेकिन ऐसी दवाओं की संख्या बढती जा रही है। ऐसे में इन पर भरोसा करने की बजाय यह अधिक अनिवार्य हो जाता है कि आप अपनी परंपराओं में निहित स्वास्थ्य विज्ञान पर ध्यान दें और अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब वैज्ञानिक आविष्कार स्वास्थ्य के लिए कम और दवाएं बिकवाने के लिए अधिक होने लगे व भ्रष्टाचार के चलते इन्हें मेडिकल जगत, मिडिया, प्रशासन या प्रसिद्ध लोलुप स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा प्रचारित किया जाने लगे, तब Brain washing से बचने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि आप और हम अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब दवा कंपनियां कमीशन, कीमती उपहार, मुफ्त विदेश यात्रा, और बड़े बड़े समारोहों में ख्याति से लुभाकर चिकित्सकों को एजेंट बनाने लगे और डॉक्टर ‘सब खाओ लेकिन दवा जरूर खाओ’ की भाषा बोलने लगे, ऐसे में डॉक्टरों का चोला ओढे एजेण्टों से बचने के लिए जरुरी हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जिस वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति का प्रत्येक क्रांतिकारी आविष्कार कुछ ही वर्षों में ही नये आविष्कार के साथ अधूरा, अवैज्ञानिक व हानिकारक घोषित कर दिया जाता है।पांच सितारा अस्पतालों, भव्य ऑपरेशन थियेटरों, गर्मी में भी कोट पहनने वाले बड़े बड़े डिग्रीधारी डॉक्टरों से प्रभावित होने की बजाए अधिक श्रेष्ठ होगा कि हजारों वर्षों से प्रमाणित व परंपराओं में बसी चिकित्सा को समझकर आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब अपनी खंडित दृष्टि के कारण डॉक्टर दवा देकर एक नये रोग को शरीर में घुसा दे या शरीर में गंभीर उत्पात पैदा कर दें और और उनकी पद्धतियों की अवैज्ञानिकता को छिपाने के लिए side effect, reaction जैसे शब्द जाल रचें, तब अपने आप को बचाने के लिए आवश्यक है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब डॉक्टर pathologist से सांठगांठ कर अनावश्यक आपको blood test, x-ray, sonography, MRI, ECG, आदि के चक्कर में फंसा आपसे पैसा ऐंठने लगे, तब मानसिक तनाव से बचने समय व धन की बरबादी को रोकने के लिए जरूरी हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जिस देश में योरोपीय- अमेरिकी समाज की आवश्यकताओं के अनुसार की गई खोजों को पढकर डॉक्टर बनते हों और जिन्हें अपने देश के हजारों वर्षों से समृद्ध खान पान और रहन सहन में छिपी वैज्ञानिकता का ज्ञान न हों, उस देश में स्वास्थ्य के संबंध में डॉक्टरों पर विश्वास करने के बजाए यह अधिक जरूरी हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।जिस दुनिया में कभी डेंगू, कभी एड्स, कभी Hepatitis, कभी चिकनगुनिया, कभी Swine flu के नाम पर भय फैला कर लूटा जाता हो।ऐसे में षड्यंत्रों के चक्रव्यूह से बचने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
जब कोई चिकित्सा मानव प्रेम या सेवा के आधार पर न कर धंधे के लिए करे तब भी ठीक है क्योंकि धंधे में नैतिकता होती है, मगर कोई नैतिकता छोड़ उसे लूट, ठगी, शिकार इत्यादि का स्रोत बना ले ऐसे में जरूरी है कि आप अपने डॉक्टर स्वयं बनें।
डॉक्टरों से भी पहले पहचानेंअपनी बीमारी
डॉक्टर बीमार पड़ने के बाद भी दुनिया भर की जांच के बिना बीमारी पकड़ नहीं सकते, जबकि आप ऐसी जांच के बिना ही तकनीकी सीख जायेंगे कि आपको 1 रुपया भी खर्च नहीं करना पड़ेगा और ये तकनीकें इतनी सहज व सरल है कि इनके लिए आपको किसी के सहयोग की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी और समय भी नहीं लगेगा।
डॉक्टर बीमारी के महज ऊपरी हिस्से को ही पकड़ नहीं पाते जबकि आप उसके मूल को भी पकड़ लेंगे। डॉक्टर बीमारी के संपूर्ण विकार को कभी बाहर निकाल कर मिटा नहीं पाते बल्कि अंदर ही दबाकर रखते हैं। आप बीमारी को समूल मिटाकर बाहर कर सकेंगे।
चैतन्य विज्ञान के अनुसार हमारे शरीर सहित सम्पूर्ण संसार पंचतत्वों से बना है –
1. वायु
2. अग्नि
3. पृथ्वी
4. जल
5. आकाश
आयुर्वेद के ऋषियों ने सर्व जन की सुविधानुसार इन्हें तीन भागों में विभक्त किया –
1. वात (आकाश+वायु)
2. पित्त (अग्नि+जल)
3. कफ(जल+पृथ्वी)
कफ से शरीर बनता है, पित्त से उसमें चयापचय ( Metabolism) की क्रिया होती है और वात से सभी गतिविधियां होती है।
वात
आकाश निष्क्रिय है और वायु सक्रिय है। इसलिए वात की तुलना वायु के पांच गुणों से करने पर वात को समझना काफी आसान हो जाता है। ये पाँच गुण निम्नांकित हैं –1. गति
2. सूखापन
3. ठंड
4. घुसपैठ
5. परिवर्तन
1. गति
● हवा गतिशील है, वात भी गतिशील है।● शरीर में जितनी भी गतियाँ हैं, सभी वात के कारण है। सांस का चलना, ह्रदय का धड़कना, हाथ पांव की हलचल, भोजन का आगे सरकना, बोलना, पलकों का झपकना सभी वात के कारण ही संभव है
● लेकिन जिस भांति वायु की अनियंत्रित गति विनाशकारी आंधी, तूफान या चक्रवात बन जाती है, कहीं अकाल तो कहीं प्रलयंकारी बाढ आ जाती है, उसी प्रकार से वात की अनियंत्रित गति बहुत से रोग पैदा कर देती है।
● गति संबंधी सभी रोग वात के प्रकोप के कारण बनते हैं – जोड़ों में दर्द रहना, सांस फूलना, पैरों में दर्द रहना, चक्कर आना, लकवा, parkinsan इत्यादि रोग वात के कारण ही हुआ करते हैं।
● तेज हवा में रहना, तेज पंखे, खुले वाहन की तेज हवा क्यों खतरनाक व घातक है ? आप समझ सकते हैं।
2. सूखापन
● हवा में सूखापन है। इसलिए कपड़े हमेशा हवा में ही सुखाये जाते हैं। और वात भी सुखाता है।● वात का मुख्य स्थान है बड़ी आंत, भोजन जब बड़ी आंत में पहुंचता है तब तरल रहता है, बड़ी आंत उसका जलीय अंश सोख लेती है। परन्तु जब वात बढ जाता है तब जलीय अंश अधिक सोख लिया जाता है, परिणामतः कब्ज हो जाती है।
● बढा हुआ वात त्वचा को रूखा बना देता है जिससे त्वचा फटने लग जाती है।
● बढा हुआ वात जब संधि स्थान पर पहुँचता है तब संधियों के बीच की तरलता को सूखा देता है जिससे संधियों में कड़ापन आ जाया करता है।
● बढा हुआ वात जब धमनियों में पहुंचने से धमनियों की दीवारों में कड़ापन आने लगता है, जिससे उच्च रक्तचाप की शिकायत रहने लगती है। ह्रदय की सूखी धमनियों पर जब रक्त का कॉलेस्ट्रॉल चिपकने लगता है, तब ह्रदय रोग हो जाता है।
● वात बढने के कारण व्यक्ति सूखकर पतला हो जाता है।
3. ठंड
हवा ठंडी होती है वात भी ठंडा होता है।● हवा में हल्की ठंडक हो तो कार्य करने में आनंद अनुभव होता है, लेकिन अधिक ठंडक से सिकुड़न बढऩे लगती है।
● मस्तिष्क ठंडा हो तो व्यक्ति की कार्य क्षमता बढती है लेकिन
हाथ पैरों में ठंडक हो तो यह रोग का कारण बन जाया करता है।
4. घुसपैठ
● पानी से भरी बोतल को खाली करते हैं, उसमें हवा घुस जाती है।वात बढऩे के कारण ही शरीर की चिकनाई सूख जाया करती है और उस रिक्त स्थान में वायु भर जाया करती है, जिससे शरीर मोटा हो जाता है या शरीर में सूजन आ जाती है।5. परिवर्तन
● हवा में तेजी से परिवर्तन होता है। किसी भी परिवर्तन के बाद वात में भी वृद्धि होती है।पित्त
अग्नि के प्रभाव से जल गर्म होकर अपना गुण बदल देता है। इसलिए पित्त में अग्नि और जल तत्व होने पर भी पित्त की तुलना अग्नि से करने पर पित्त को समझना बिल्कुल सहज हो जाता है। इसके भी पांच गुण हैं –1. जलन
2. रंग ( पीला व लाल)
3. पिघलना
4. फैलना
5. दुर्गंध
1. जलन
● चूल्हे की नियंत्रित अग्नि ही हमारे भोजन को पकाती है। परन्तु यही
अग्नि जब अनियंत्रित होकर फैल जाती है तो न महज भोजन को ही बल्कि पूरे घर
को जलाकर खाक में बदल देती है।● शरीर में पित्त का मुख्य स्थान पक्वाशय यानी आमाशय और छोटी आँत है। शरीर का पित्त अनियंत्रित होने पर यकृत, जठर, गुर्दे, ह्रदय के वाल्व आदि को जलाने लगता है।
● जब भी शरीर में आंख, हथेली, पैर के तलवों में या मूत्र त्याग के समय गर्मी या जलन का अनुभव हो,तो समझ जाना चाहिए कि शरीर में पित्त बढ़ रहा है। उसी दिन पित्त को शांत कर दिया जाय तो शरीर में बड़े रोगों के प्रवेश से बचे रहेंगे।
2. रंग (पीला-लाल)
● अग्नि में पीलापन है। शरीर में पित्त बढने पर मल-मूत्र, पसीने, आंख आदि में पीलापन दिखना पित्त बढने के लक्षण हैं।● भय के कारण भी पित्त बढ़ जाता है, जिससे चेहरा पीला पड़ जाता है।
● अग्नि में लाली भी होती है। पित्त बढने से ज्वर आता है ज्वर में चेहरा लाल हो जाता है।
● क्रोध भी पित्त को कुपित करता है।
● मध्याह्न में गर्म चीजें खाने से पित्त कुपित होता है।
3. फैलना
गर्मी से वस्तुएं फैलती है। ऐसे ही पित्त कुपित होने से हमारे अंगों यथा- टांसिल्स, यकृत, ह्रदय, गर्भाशय आदि का आकार बढने लगता है। आंतें फैलने लगती है, परिणामतः हर्निया हो जाता है।4. पिघलना
● आग वस्तुओं को पिघलाती है। वैसे ही पित के कुपित होने से शरीर पिघलने लगता है। शरीर पिघलकर नाक से बहने लगता है जिसे हम जुकाम कहते हैं। उसी भांतिपुरुषों में प्रमेह और महिलाओं के प्रदर रोग में भी शरीर की धातु ही पिघलकर निकलती है।5. दुर्गंध
कोई भी खाद्य पदार्थ सर्दी के दिनों की अपेक्षा गरमी के दिनों में जल्दी सड़कर दुर्गंध देने लगती है। शरीर में भी पित बढने पर सांस, पसीने, पाद, मल- मूत्र आदि में दुर्गंध आने लगती है।कफ
जल और मिट्टी के मिश्रण से दलदल बनता है। कफ की तुलना दलदल से करने पर कफ को समझना सहज हो जाता है। इसके निम्न गुण हैं –1. चिपचिपाहट
2. चिकनाई
3. ठंड
4. भारीपन
5. जड़ता
1. चिपचिपाहट
दलदल में पांव रखते ही वह पैर में चिपक जाती है। इसी तरह कफ बढने पर त्वचा में चिपचिपापन आती है। रक्त में चिपचिपाहट आ जाती है और वह रक्तवाहिनियों में चिपकने लगता है।2. चिकनाई
दलदल पर पैर फिसलता है। शरीर में चिकनाई व चिपचिपाहट का संतुलन होना अनिवार्य है।3. ठंड
दलदल में ठंड होती है। कफ बढने पर व्यक्ति को ठंड अधिक महसूस होती है। ठंड के कारण कफ में वृद्धि होती है।4. भारीपन
पांचों तत्वों में जल और पृथ्वी तत्व सबसे भारी हैं। इसलिए कफ में भी भारीपन होता है। और शरीर भी भारी होने लगता है।5. जड़ता
जैसा कि विदित है दलदल में गति नहीं होती है और होती भी है तो बहुत मंद। इसी भांति कफ बढ जाने पर व्यक्ति की गति मंद हो जाती है।अब आईये जानते हैं त्रिदोष विकृति के लक्षण और उन्हें विकृत न होने देने के उपाय, अर्थात क्या करें क्या न करें –
वात
वात विकृत होने पर नींद कभी कम आती तो कभी अधिक। कभी जल्दी आ जाती है तो कभी देर तक नहीं आती।● भूख भी कभी कम तो कभी अधिक लगती है। भूख लगने के समय में भी अनियमितता आ जाती है।
● दिनचर्या भी नियमित नहीं रह पाती
● स्त्रियों में मासिक धर्म भी नियमित नहीं रह पाता।
● व्यक्ति कभी खुश तो कभी दुखी, कभी मजाकिया तो कभी गंभीर, कभी आध्यात्मिक तो कभी सांसारिक, कभी त्यागी तो कभी भोगी।
● शरीर अधिक पतला तो किसी का अधिक मोटा।
● यथार्थ से बिल्कुल अलग काल्पनिक लोक में रहना।
● व्यक्ति एक ही स्थिति में अधिक देर तक नहीं रह सकता
● मन शांत नहीं रहता।
● बेचैनी रहना, अधिक जम्हाई आना, बार बार हिचकी आना।
● एक काम छोड़कर बिना पूरे किए ही दूसरा करने लगना।
● त्वचा सूखी एवं सर्दी के मौसम में फटने लगती।
● मुंह सूखा सूखा लगता, प्यास मिटती नहीं, स्वाद बिगड़ा हुआ रहता।
● आंतों में रूखापन रहने से मल आगे नहीं बढता, जिससे कब्ज रहती है।
● संधि के जोड़ों में चिकनाई सूखने से लचीलेपन में कमी आ जाती है परिणामतः दर्द रहने लगता है।
● कान साफ करने पर सूखा मैल निकलना।
● भाषा में मधुरता का अभाव एवं जल्दी चिढ जाना।
● अस्थिरता के कारण चित एकाग्र नहीं होने की वजह से भुलक्कड़ हो जाता।
● अधिकतर दर्द का कारण वात विकृति होता है। एकदम उठने वाले दर्द वात के दर्द होते हैं।
● गैस यथा डकार तथा पाद का अधिक आना भी इसी का लक्षण।
● पूरे शरीर में सूखी खुजली का चलना।
● अचानक होने वाले दर्द, ऐंठन यानी बाइण्टा, मिरगी, व्यवहार परिवर्तन, भाव परिवर्तन जैसे- आकस्मिक भय,आकस्मिक क्रोध आदि।
● जोड़ों में हल्का दर्द एवं अकड़न का रहना।
● भय,क्रोध, सर्दी, बुखार, क्षमता से अधिक व्यायाम, परिश्रम वजन उठाने आदि से कंपकपी का आना।
● उत्साहहीन एवं थका महसूस करना।
वात विकृत न होने देने के उपाय
वर्षा, गर्मी एवं शीत ऋतु में खानपान का ख्याल रखना। (इसका वर्णन आगे पढने पर मिल जायेगा) गलत खानपान, दौड़ भाग के जीवन, ए.सी.में रहने, फ्रिज के बासी आहार खाने, बेसिर-पैर की कल्पना से वात विकृत होता है।
● सवेरे सूर्योदय से ढाई घंटे के भीतर भर पेट भोजन कर लेना चाहिए। दोपहर का भोजन उससे आधा एवं रात्रि में दोपहर का आधा कर देना चाहिए
● पानी नियमित पीते रहना चाहिए। भोजन करते ही नहीं। वाग्भट्टजी का फार्मूला अपनाना चाहिए।
● गति को सदैव नियंत्रित रखें। यथा पंखे की सीधी हवा से बचें, पंखे के नीचे सोने की मजबूरी में पंखा धीमा रखें, कानों में एक दो बूंद गुनगुना तेल डालें, नाक में घी या तेल लगायें।
● शास्त्रीय संगीत से वात नियंत्रित होता है।
● हल्के व्यायाम करें।
● दिनचर्या योजनाबद्ध तरीक़े से चलायें।
● पानी धीमे धीमे एवं घूंट घूंट कर पीयें।
● सुखासन, पद्मासन, वज्रासन, शवासन या कोई भी आसन जिसमें आप प्रतिदिन आधा घंटे अनवरत रह सकें, अवश्य करें।
● ठंड से वात विकृत होता है।इस हेतु कुछ गर्म प्रयोग करें। यथा भोजन के बाद गर्म पानी पीना।
● रात्रि को तांबे के बर्तन में रखा जल प्रातःकाल पीयें। लेकिन पित्त विकृत हो तो यह प्रयोग न करें। और तांबे के बर्तन में पानी गरम न करें। प्रतिदिन तांबे के बर्तन को साफ कर ताजा जल भरना चाहिए।
● गर्म पानी ज्यादा गर्म है तो उसे ठंडा करने के लिए उसमें ठंडा पानी न मिलाएं। नुकसान करेगा। बड़े बर्तन में डालकर ठंडा करें।
● सर्दी की ऋतु में गर्म आहार यथा बाजरा, उड़द, सरसों का साग,मेथी, दानामेथी, अजवायन, गर्म मसाले, तिल-सरसों का तेल, तली चीजें, सूखे मेवे इत्यादि का विशेष सेवन करना चाहिए।वात रोगियों को वातनाशक तेलों से मालिश करना चाहिए। शीत ऋतु में व्यायाम करें।
● ग्रीष्म ऋतु में नारियल तेल से मालिश करना चाहिए।
● वात प्रधान व्यक्ति बिना तेल मालिश के थकानेवाले व्यायाम न करें।
● कसी हुई कमर होने पर हवा शरीर में घुसपैठ नहीं कर पाती। धोती से हमारी कमर हमेशा कसी हुई रहती है।
● कान से हवा शरीर में घुसती है, इसलिए ढककर रखना चाहिए। महिलाओं के सिर पर ओढनी या चुन्नी रखना व पुरुषों के पगड़ी पहनने का यही विज्ञान एवं राज है।
● खाली पेट में हवा घुस जाती है। अतः व्रत उपवास के दिवस गर्म पानी पीते रहना चाहिए। चाय पीने से वात भले ही नियंत्रित हो पित्त विकृत होता है। इसलिए उपवास दिन चाय नहीं पीना चाहिए।
● बैठकर पेशाब करने से हवा निचले अंगों में घुसपैठ नहीं कर पाती। बल्कि बैठकर पेशाब करने से अपानवायु भी निकल जाती है। वह फायदे कारक है।
● माघ व फागुन में, वर्षा के तेज झोकों से, लू के दिनों में शरीर में तेजी से वात विकार होने की संभावनाएं रहती हैं। इन हवाओं का बचाव करें।
● परिवर्तन की उपेक्षा न करें। यथा जागने, मल-मूत्र त्यागने, स्नान भोजन के बाद तुरंत पानी नहीं पीना चाहिए। काम छोटे छोटे मगर परिणाम गंभीर होते हैं।
● आधी रात को प्यास के कारण नींद खुले तो तुरंत पानी पी सकते हैं क्योंकि तुरंत वापस सोना ही है, इसलिए यहां परिवर्तन नहीं है। इसी भांति धूप में रहते हुए पानी पीने से कोई नुकसान नहीं लेकिन धूप से छाया में आने के तुरंत बाद जल पीने से नुकसान होता है। भोजन बनाते समय पानी पीना ठीक, मगर रसोई से निकलने के तुरंत बाद पानी पीना हानिकारक।
● चोट भी एक प्रकार का परिवर्तन है। चोट के बाद गर्म पानी (पेय) अमृत है और ठंडा जल विष।
● फलों का रस अमृत होते हुए भी रकतदान के बाद क्यों नहीं पीना चाहिए चाय विष समान होते हुए भी रक्तदान के बाद क्यों पीना चाहिए? आप समझ सकते हैं।
● मासिक धर्म भी एक प्रकार का परिवार है इस समय ठंडा आहार वर्जित है गर्म आहार लेने की सलाह दी जाती है, विश्राम करने की सलाह दी जाती है। सेनेटरी नेपकिन की मार्केटिंग फलस्वरूप इसके प्रचार का शिकार होने के कारण ही आज गर्भाशय के रोग तेज गति से बढ रहे हैं।
● ध्यान रखें जितना बड़ा परिवर्तन उतना ही बड़ा उपाय।
No comments:
Post a Comment